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गांधीवादी स्वतंत्रता सेनानी उमेंद्र सिंह कलिहारी ने ठान रखा था: जब तक आजादी नहीं मिलती पलंग पर नहीं सोएंगे, स्वयं गांधी की तरह कातते थे सूत, पहनते थे खादी का ही कपड़ा

आजादी की लड़ाई में 9 महीने तक जेल में रहे, शिक्षक की नौकरी भी पड़ी थी छोड़नी

बालोद। आजादी के इस 77 वें वर्षगांठ पर हम आज बालोद जिले के एक ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्व उमेंद्र सिंह कलिहारी के बारे में बता रहे हैं जिनका पूरा जीवन महात्मा गांधी से प्रेरित रहा। वे एक शिक्षक थे लेकिन देश की आजादी के लिए वे अंग्रेजों के खिलाफ हो गए। नतीजन उन्हें शिक्षक की नौकरी छोड़नी पड़ी थी। लेकिन जब देश आजाद हुआ तो तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के विशेष आदेश से उनकी उसी स्कूल में पुनरनियुक्ति हुई जहां से उन्होंने आजादी की लड़ाई के कारण नौकरी छोड़ी थी। इतना ही नहीं भरदाकला के सेनानी उमेंद्र कलिहारी अधिकतर मामलों में गांधीवादी थे। उन्होंने यह प्रतिज्ञा ली थी कि जब तक देश को आजादी नहीं मिलेगी तब तक वे पलंग पर आराम नहीं करेंगे। उनके द्वारा पलंग का बहिष्कार किया गया था और इस बहिष्कार का पालन उनके परिवार के अन्य सदस्य भी किया करते थे। यह बातें हमें उनके परपोते क्रांति भूषण साहू ने बतलाई, जिनकी जुबानी आज हम सेनानी उमेंद्र सिंह कलिहारी की कहानी को आपके सामने रख रहे हैं। “आजादी के दीवाने” जो बदरुद्दीन कुरैशी की रचना है इसमें भी उक्त सेनानी के बारे में जिक्र मिलता है। एक शिक्षक होने के साथ-साथ स्वर्गीय कलिहारी एक कवि भी थे। वे जब देश को आजादी मिली तो स्वतंत्रता दिवस पर अपनी कविता में “भारत वैभव की झांकी” शीर्षक में आजादी के दिन की व्यथा को चित्रित करते हुए लिखते हैं: मैं क्या कहूं कैसे कहूं, कुछ भी कहा जाता नहीं। 15 अगस्त की खुशहाली में चुप भी रहा जाता नहीं। सुन रहा हूं आज यहां जो भारत का वैभव भारी है। वह जग जाहिर अति आकर्षक अद्भुत जनमनहारी है। स्वर्गीय कलिहारी का जन्म 1 जुलाई 1905 को ग्राम भरदाकला (तत्कालीन दुर्ग जिला) में हुआ था। उनके पिता अमोली राम एक संपन्न कृषक थे। कक्षा 6 तक शिक्षा प्राप्त कर श्री कलिहारी ने शिक्षकीय जीवन प्रारंभ किया।

1942 से कूदे स्वतंत्रता संग्राम में

क्रांति भूषण साहू ने बताया कि उनके परदादा स्वर्गीय उमेंद्र सिंह कलिहारी
1942 में करो या मरो के उद्घोष के साथ स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। उस समय वे अर्जुंदा मिडिल स्कूल में सहायक शिक्षक थे। शिक्षक होते हुए भी उन्होंने आजादी के आंदोलन का प्रचार प्रसार कर लोगों को जागरूक किया। भारत छोड़ो आंदोलन के माध्यम से अंग्रेजी शासन के खिलाफ निर्भीकता से भाषण देकर लोगों में जोश जुनून और देश प्रेम की भावना पैदा करते रहे। इस दौरान महात्मा गांधी के संपर्क में आने के कारण उनके व्यक्तित्व में और भी काफी बदलाव आ गया। वे गांधी से काफी प्रभावित हुए। कलिहारी के नेतृत्व के प्रभाव से समूचा जनमानस राष्ट्र के प्रति समर्पण का भाव लेकर एकजुट होने लगा था।

9 महीने तक रहे रायपुर जेल में

आंदोलन में अपनी सक्रिय भागीदारी से क्रांति के वीर सपूत पहचान लिए गए और पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उन्हें 22 अक्टूबर 1942 से 16 जून 1943 तक रायपुर जेल में 9 महीने तक रखा गया। जेल से लौटने के पश्चात उनकी क्रांतिकारी भूमिका और भी बलवती होती गई। अब उनके जोशीले भाषण लोगों को स्वतंत्रता के प्रति जागरूक कर वैचारिक आंदोलन से जोड़ने लगे थे। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन को अनेक तरीकों से अंग्रेजी शासन के विरुद्ध प्रचारित कर एक सच्चे देशभक्त होने का परिचय दिया।

खादी के कपड़े पहनने का लिया संकल्प, बचपन से टोपी भी पहनते थे , अर्जुंदा में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई

 

उन्होंने जीवनपर्यंत महात्मा गांधी के आदर्शों का पालन करते हुए खादी के कपड़े पहनने का संकल्प लिया और सर्वप्रथम ग्राम अर्जुंदा में विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर स्वदेशी खादी धारण करने के लिए लोगों को प्रेरित किया। वे असाधारण व्यक्तित्व के धनी थे। उन्हें अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हुए अंचल के प्रमुख कार्यकर्ताओं के साथ कोलकाता कांग्रेस अधिवेशन 1930 में भाग लेने का गौरव भी प्राप्त हुआ था।

जहां से छूटी थी नौकरी, वही मिली पुनरनियुक्ति

जब देश आजाद हुआ तो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा जारी एक आदेश के तहत श्री कलिहार को पुनरनियुक्ति अर्जुंदा के मिडिल स्कूल में सहायक शिक्षक के पद पर ही हुई। स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के कारण शासन द्वारा उन्हें ताम्रपत्र देकर सम्मानित किया गया था। आजादी के बाद 1955 में स्वराज के सपनों को पूरा करने के लिए संत विनोबा भावे के संपर्क में आए। उनके सर्वोदय कार्यक्रम से जुड़कर जनमानस में व्यापक प्रचार प्रसार के लिए अनेक पदयात्राएं की। उन्होंने भूदान, ग्रामदान और ग्राम स्वराज आंदोलन में भाग लेकर देश की जनता के प्रति सामूहिक जिम्मेदारी का नेतृत्व करते हुए क्रांतिकारी स्वभाव का परिचय दिया। उन्होंने दुर्ग जिला सर्वोदय संघ के अध्यक्ष पद का दायित्व निर्वहन किया तो दुर्ग शिक्षक संघ के अध्यक्ष बनकर शिक्षकों की महत्वपूर्ण शैक्षिक समस्याओं का निराकरण भी करवाया। उन्होंने अर्जुंदा परिक्षेत्र के कांग्रेस मंडलेश्वर पद को भी सुशोभित किया। विनोबा जी की हीरक जयंती के उपलक्ष में दुर्ग जिले से लगभग ₹50000 की लक्ष्य राशि का संग्रहण कर उन्हें सौंपी। इसी तरह उनकी अहिंसा के प्रति प्रतिज्ञा और अनशन की प्रक्रिया जीवन भर चलती रही।

मशीन का चावल आटा नहीं खाने का प्रण

महात्मा गांधी के जन्मशती वर्ष पर अपने स्वदेशी व्रत की एक और बानगी प्रस्तुत करते हुए उन्होंने मशीन का आटा चावल ग्रहण नहीं करने की शपथ ले ली। गांधी जी की शिक्षा के बुनियादी सिद्धांत और ग्राम स्वराज से प्रेरित होकर उन्होंने शिक्षकीय जीवन से ही चरखे से सुत काटना प्रारंभ कर दिया था। बापू से भेंट उनके जीवन की सुखद अविस्मरणीय पलों में एक रहा। वे डायरी भी लिखते थे। जिसमें कुछ पन्नों में भूली बिसरी यादों का रोमांच बसा हुआ है कुछ पन्ने उनके साहसिक साहित्यिक रचनाओं से भरे पड़े हैं। उनकी लेखनी मूलतः आजादी, समाज और वर्तमान राजनीतिक दशा के बीच थी। लंबी बीमारी से जूझते हुए 90 वर्ष की अवस्था में 28 अगस्त 1994 को उनका निधन हो गया। ग्राम भरदाकला के निवासी आज भी झंडे की रस्सी थामें बाबा उमेंद्र कलिहारी को आत्म गौरव एवं श्रद्धा सम्मान से याद करते हैं। उनका गांव आज उनके योगदान के कारण गौरव ग्राम का दर्जा पा चुका है। उनकी सादगी, जन सेवा और देश के प्रति त्याग, समर्पण, बलिदान की भावना को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

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