राजनीति

Shiv Sena Row: कांग्रेस और एनसीपी भी बनाएंगी उद्धव से दूरी!

BMC Election 2023: सत्ता और पार्टी गंवाने के बाद भी उद्धव ठाकरे की मुश्किलें अभी कम नहीं हुई हैं. ऐसे में उनके सामने एक आखिरी रास्ता बचा है जिसे उन्हें हर हाल में पार करना ही होगा.

Uddhav Thackeray: उद्धव ठाकरे राजनीति के सबसे मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं. 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद जब उद्धव ठाकरे ने बीजेपी से नाता तोड़कर कांग्रेस और एनसीपी के समर्थन से सरकार बनाई, तो यह सिर्फ महाराष्ट्र ही नहीं, बल्कि देश की राजनीति के लिए चौंकाने वाला फैसला रहा था. उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बने, लेकिन उन्होंने शायद ये सोचा भी नहीं होगा कि यह फैसला आगे चलकर उनके लिए कितनी मुश्किल लाने वाला है.

उद्धव के फैसले से बीजेपी तो तिलमिलाई ही थी, पार्टी के अंदर भी एक धड़े में असंतोष पनपा. जो बढ़ता ही रहा और 2022 में बगावत के रूप में फूट पड़ा. इस बगावत का नेतृत्व किया एकनाथ शिंदे ने. इस बगावत ने पहले उद्धव ठाकरे के हाथ से सत्ता छीनी और फिर एक के बाद एक झटके के बाद अब वे पार्टी का नाम और निशान भी गंवा चुके हैं.

वो पार्टी जिसे उनके पिता बालासाहेब ने खड़ा किया और जिसे उनके परिवार की राजनीतिक विरासत माना जाता था. शिवसेना को कभी ठाकरे परिवार से अलग सोचा भी नहीं जाता था, आज उसी शिवसेना की लड़ाई फिलहाल तो हारते दिख रहे हैं. चुनाव आयोग ने एकनाथ शिंदे के गुट को ही असली शिवसेना मानते हुए पार्टी का चुनाव निशान भी उसे सौंप दिया. उद्धव ठाकरे सुप्रीम कोर्ट गए, लेकिन बुधवार (22 फरवरी) को सर्वोच्च अदालत ने भी चुनाव आयोग के फैसले को बने रहने दिया.

अभी मुश्किलें कम नहीं
उद्धव ठाकरे के लिए मुश्किल यहीं कम नहीं होती दिख रही है. पार्टी जाने के बाद अब उद्धव ठाकरे के लिए नए सिरे से पूरा ढांचा खड़ा करना होगा. उद्धव अब पहले जैसी स्थिति में नहीं हैं. इस बात को एनसीपी और कांग्रेस जैसे सहयोगी समझ रहे हैं और इस कमजोरी का फायदा उठाना चाहेंगे. यह भी हो सकता है कि एनसीपी और कांग्रेस धीरे-धीरे उद्धव ठाकरे से किनारा ही न कर लें. एनसीपी की तरफ से तो पहले ही अगले मुख्यमंत्री के लिए नाम उछाला जाने लगा है.

सामने है सियासी वजूद की लड़ाई
उद्धव ठाकरे के सामने बीएमसी के चुनाव सबसे बड़ी चुनौती है. बीएमसी में 25 सालों से शिवसेना का राज रहा है, लेकिन वो शिवसेना ठाकरे परिवार की हुआ करती थी. अब शिवसेना एकनाथ शिंदे की हो चुकी है. अगले कुछ महीने में होने वाला बीएमसी का मुकाबला राज्य में कई नए राजनीतिक समीकरणों की राह तय करेगा. शिंदे को जहां ये साबित करना होगा कि क्या वे वाकई बाल ठाकरे के राजनीतिक वारिस हैं, बीजेपी के लिए यह बताएगा कि क्या उन्होंने सही दांव लगाया है. उद्धव ठाकरे के लिए तो यह एक तरह से सियासी वजूद की लड़ाई है.

बीएमसी के चुनाव उद्धव के भविष्य की राह बहुत कुछ तय करेंगे. यही वजह है कि उन्होंने एक नए राजनीतिक समीकरण का एलान किया है. बीएमसी में उन्होंने प्रकाश अंबेडकर वंचित बहुजन अघाडी के साथ चुनाव लड़ने का फैसला किया है. हिंदुत्व और मराठा विचारधारा वाले उद्धव ठाकरे और दलित और मुस्लिम के बीच पैठ वाले प्रकाश अंबेडकर के बीच सियासी गठजोड़ राज्य के लिए नया सियासी प्रयोग है. इस प्रयोग के नतीजों पर उद्धव ठाकरे का बहुत कुछ दांव पर है.

फिलहाल ये है राहत की बात
प्रकाश अंबेडकर के साथ उद्धव का ये गठबंधन अभी बीएमसी के लिए ही है. लोकसभा में वे कांग्रेस और एनसीपी के साथ ही चल रहे हैं. बुधवार को सामना में लिखे लेख से ये साफ भी हो गया है. उद्धव ठाकरे के लिए राहत की बात ये है कि सत्ता और पार्टी गंवाने के बाद भी उनकी लोकप्रियता बनी हुई है. पार्टी में टूट के बाद हुए दो सर्वे में उनके खेमे वाले यूपीए की सीटें लगातार बढ़ी हैं. सी वोटर के अगस्त 2022 के सर्वे में यूपीए को 30 सीट मिलती दिखाई गई थीं, जबकि जनवरी 2023 के सर्वे में ये बढ़कर 34 सीट हो गई है.

वहीं, सत्ता और पार्टी पर पकड़ बनाने के बाद भी शिंदे गुट को अभी तक कोई सफलता नहीं मिल सकी है. हाल ही में हुए विधान परिषद चुनावों में बीजेपी-शिंदे गुट 5 में से 4 सीटों पर हार गया था.

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
error: Content is protected !!
×

Powered by WhatsApp Chat

×